किसी हाउसफुल थिएटर में दर्शक रामसे ब्रदर्स की क्लासिक हॉरर फिल्म देख रहे हैं जिसमें एक चुड़ैल पीछे से आदमी की गर्दन पकडती है और लोग डर के मारे काँप जाते है, तभी फिल्म अचानक रुक जाती है. प्रोजेक्शन रूम में एंट्री होती है नवाजुद्दीन सिद्दीकी की. वो रील बदलता है. फिल्म दुबारा शुरू होती है. खौफ में डूबी दर्शकों की आँखों पर हवस की परत चढ़ने लगती है. डर का कम्पन लावा रूपी ज्वाला में परिवर्तित होकर देह को सुखद एहसास देने लगता है.
     दुग्गल भाइयों को इस काम में महारत हासिल है. बड़ा भाई विक्की दुग्गल(अनिल जॉर्ज) नये कलाकारों के साथ अश्लील फिल्म बनाकर फिल्म निर्माता पीके(राकेश अस्थाना) को बेचता है और फिल्म वितरक हीरा(मनोश बख्शी) रिलीज़ करता है, तो छोटा भाई सोनू दुग्गल(नवजुद्दीन सिद्दीकी) रीलों में अलग से अश्लील दृश्य जोड़ने, रीले सप्लाई करने व नईं-नईं तारिकाओ का इन्तजाम करने का काम करता है.

     यह वो 80 का दशक था जब मुंबई, बॉम्बे हुआ करता था. मल्टीप्लेक्स शब्द दूर-दूर तक
किसी की जुबान पर नहीं था. इसी दशक में पायरेसी फिल्मों की शुरुआत हुईं, नईं फिल्में पहले ही दिन केबल टीवी पर दिखाई जाने लगी. टॉप स्टार्स, मल्टीस्टारर, मेगा बजट फिल्में नाकाम होने लगी. सिंगल स्क्रीन सिनेमाघरों के मालिक घाटे की भरपाई करने में नाकामयाब हुए तो मजबूरन उन्हें सिनेमाघर बंद करने पड़े.
     उस वक्त दक्षिण में सी-क्लास फिल्मों का बोलबाला था. पायरसी की मार झेल रही मायानगरी में इन फिल्मों ने पैर पसारने शुरू किये. दक्षिण की उन सी-क्लास फिल्मों को डब कर सेंसर बोर्ड और सरकार की आँखों में धूल झोंकते हुए 1-2 रील की पोर्न फिल्मों के साथ रिलीज़ किया जाने लगा. धीरे-धीरे दर्शकों की भीड़ जुटने लगी. निर्माता दुगना मुनाफा कमाने लगे. इस तरह फिल्मों में नये दौर का प्रारंभ हुआ.
     यह फिल्में बनती कैसे थी? इन्हें बनाने वाले लोग कैसे थे? इनके अदाकारों-निर्देशकों की ज़िन्दगी क्या थी? कैसे 80 के दशक में सी-क्लास फिल्मों कि आड़ में अश्लील फिल्मों का चलन 90 के दशक के आते-आते पोर्न फिल्मों का रूप लेने लगा? निर्देशक अशीम अहलुवालिया की फिल्म मिस लवली दो भाईयों विक्की दुग्गल और सोनू दुग्गल के मार्फ़त इन सवालों के जवाब देती है.
     फिल्म विक्की के महत्वाकांक्षाओं व सोनू के आत्मसंघर्ष की कहानी है. विक्की बहुत बड़ा फिल्ममेकर बनना चाहता है. बड़े लोगो के साथ बैठना चाहता है. वह उन्हें अश्लील फिल्मों में पैसा लगाने के लिए मना तो लेता है, लेकिन गन्दी दुनिया में धँसता चला जाता है. सोनू को विक्की का काम रास नहीं आता है. वह अच्छी, इज्ज़तदार, रोमांटिक फिल्में बनाना चाहता है. फिल्म में सोनू का एक संवाद है डेली जा रहे हो...मेहनत कर रहे हो...वो ठीक है...लेकिन जा कहाँ रहे हो?...वो तो पता होना चाहिए. 80 के दशक की अश्लील फिल्मों के समक्ष कहा गया यह संवाद आज के 100 करोड़ क्लब की अफरातफरी के जिम्मेवार लोगों के गाल पर करारे थप्पड़ जैसा है, जो करोड़ों रूपयें खर्च करके, सैकड़ो लोगों की मदद से, महीनों शूटिंग कर फिल्म बनाते है जिसका एकमात्र उद्देश्य घिसा-पिटा मनोरंजन परोसकर मुनाफा कमाना है. फिल्मों से परे आम ज़िन्दगी में भी तो हम सब मशीन की तरह लगे हुए है बिना यह जाने की इसका असली प्रायोजन क्या है?
     विक्की भी इनमें से एक है, लेकिन सोनू नहीं. वो सोचता है अश्लील फिल्में बनाने में भी मेहनत करनी ही है तो कुछ अच्छा बनाकर इज्ज़त ही क्यूँ नहीं कमाई जाए? इसी बीच उसकी मुलाकात पिंकी(निहारिका सिंह) से होती है, वो ढाई अक्षर(प्रेम और फिल्म) की कल्पनाओं और योजनाओं में जुटकर फैसला करता हैं कि पिंकी के साथ अच्छी, रोमांटिक, इज्ज़तदार फिल्म मिस लवली बनाएगा. लेकिन कहानी यहीं खत्म नहीं होती, जब किसी चीज़ की उम्र बढ़ने लगती हैं तो उस पर गाज गिरना स्वाभाविक है. एक तारिका की लाश मिलते ही प्रशासन की आँख खुलती है और सी-ग्रेड फिल्मों का कारोबार अंधियारों में सिमटने लगता है. साथ ही दोनों भाइयों की आकांक्षाएं टकराने लगती है.
     निर्देशक अशीम जिन्होंने इससे पहले कॉल सेंटर पर एक डाक्युमेंट्री जॉन एंड जेनबनाई थी, वो इस कहानी को बताने के लिए भी डॉक्युमेंट्री ही बनाना चाहते हैं पर जब इन अश्लील फिल्मों को बनानेवाले उनकी डॉक्युमेंट्री में अपनी पहचान सामने लाने से इनकार करने लगे तो अहलुवालिया ने इस विषय को एक्सप्लोर करने के लिए काल्पनिक किरदारों का इस्तेमाल किया. मिस लवलीकुछ अजीब किरदारो के साथ बॉम्बे का कठोर हिस्सा दिखाती है. वो छोटे ऑफिस, सस्ते होटल रूम और खाली वेयरहाउस जहाँ ये गंदी फिल्में शूट की जाती हैं. इस सबको फिल्म के निर्देशक वास्तविक शूट करते हुए इस काल्पनिक कहानी में भी कुछ हद तक एक डाक्युमेंट्री फील लाते हैं. अशीम ने सी-क्लास फिल्म बनाने वाली उस दुनिया को पूरी ईमानदारी के साथ पर्दे पर उतारा है. अतीत के लुक को प्रभावी ढंग से दिखाने के लिए उन्होंने अस्सी के दशक के पॉप कल्चर के साथ पुराने स्टूडियोज, कामकाज के ढंग, धुंधली रोशनी, ड्रेस डिजाइन आदि पर भी अच्छा फोकस किया है.
     फिल्म में जो अभिनेता सबसे ज्यादा ध्यान आकर्षित करता है, वह हैं अनिल जॉर्ज. उनका अभिनय बेहद सहज है और वे अपने किरदार को पोर्न फिल्ममेकर की ऊंचाई तक ले जाते हैं. नवाजुद्दीन की यह उन दिनों की फिल्म है, जब वे काम-दाम-नाम के लिए संघर्ष कर रहे थे. अपनी भूमिका में वह बेजोड़ हैं.
     यह फिल्म उस दुनिया का असली सच पेश करती है जिसके किरदारों का काम दूसरों की भावनाओं को जगाकर पैसा कमाने का है. जैसा फिल्म के इस संवाद से साफ भी हो जाता है 'कुर्सी पर बैठकर, बिस्तर का मजा.' इसी दुनिया में विजयलक्ष्मी उर्फ़ सिल्क स्मिता नाम की सुपरस्टार हुईं, जिसने मेकअप आर्टिस्ट की हैसियत से फ़िल्मी-दुनिया में कदम रखा था और धीरे-धीरे वो बी, सी-ग्रेड फिल्मों की टॉप हीरोइन बन गयी. पोस्टर पर स्मिता की फोटो देखकर लोग टिकट खरीदा करते थे. उत्तेजक आइटम डांस और बोल्ड दृश्यों की वजह से उसे ‘सॉफ्ट पोर्न एक्ट्रेस’ कहा जाने लगा. अचानक मिली इस सफलता से वो खुद को संभाल नहीं पाई फिर आर्थिक संकट और प्यार में मिले धोखे की वजह से शराब में डूब गईं और मात्र 36 वर्ष की उम्र में ही चेन्नई स्थित अपने अपार्टमेंट में मृत पायी गईं.
     कान फिल्म फेस्टिवल सहित दुनिया के कई नामी फिल्म फेस्टिवलों में इस फिल्म को खूब तारीफें मिलीं. फिल्म को करीब दो साल पहले बनाया गया था, लेकिन प्रॉडक्शन कंपनी इसे देश में रिलीज करने से पहले कुछ फिल्म समारोहों में भेजना चाहती थी. अमेरिका सहित कई देशों में 'मिस लवली' ने अच्छी कमाई और तारीफें हासिल की है. प्रॉडक्शन कंपनी ने जब इस फिल्म को इंडियन सेंसर बोर्ड की प्रिव्यू कमिटी के सामने पेश किया तो कमिटी ने इस फिल्म में 150 से ज्यादा कट लगाने के बाद फिल्म को अडल्ट सर्टिफिकेट देने की बात कही. इसके बाद कंपनी ने सेंसर बोर्ड के आला अधिकारियों से कहानी, पटकथा वगैरह की चर्चा करने के बाद दोबारा स्क्रीनिंग कराई तो सेंसर कमिटी ने पूरी फिल्म में सिंगल कट तक नहीं लगाया. सिर्फ कुछ हॉट सीन्स को धुंधला किया गया तो कुछ संवादों की साउंड हटा दी गई.
      आज के इन्टरनेट युग ने कुछ अच्छी तो कुछ बुरी चीजों को खत्म किया है. इनमें उन फिल्मों के वे ‘मोर्निंग शो’ भी शामिल है जिन्हें देखने लोग चेहरा छुपाकर जाया करते थे. लेकिन इससे ऐसी फिल्मों का कारोबार घटने के बजाय बढ़ा ही हैं. इन्टरनेट की आड़ में चोरी-छिपे व्यापार करने वालो पर शिंकजा कसना इतना आसान नहीं रहा. सन 2001 में गाइड फिल्म के निर्देशक विजय आनंद जब सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष बने थे तो उन्होंने कमिटी के सामने प्रस्ताव रखा था कि अश्लील फिल्मों के प्रदर्शन के लिए प्रत्येक शहर में एक सिंगल स्क्रीन सिनेमाघर होना चाहियें, ताकि कालाबाजारी को रोका जा सके और ऐसा करने वालोँ के चेहरे उजागर हो सके, लेकिन सबकी भौंहे चढ़ गईं. देश की संस्कृति का हवाला देकर खासा विवाद हुआ. आज वो ही संस्कृति इन्टरनेट पर अश्लील सामग्री देखने के मामले में दुनिया में छठे स्थान पर है.