फिल्म की कहानी केन्द्रित हैं पांच मुख्य किरदारों अभय(सेंधिल रामामूर्ति), तिलक(तुषार कपूर), रमेश(निखिल द्विवेदी), मंदूक(पितोबश) और सावन(संदीप किशन) जो मुंबई शहर के शोर बीच सुकून से जीना चाहते हैं. अभय एक NRI हैं, जो भारत वापस आता हैं एक छोटा सा बिज़नस शुरू करने. तिलक एक बुक पब्लिशर हैं जो अपने दोस्त रमेश और मंडूक के साथ मिलकर लेखक का अपरहण करते हैं और उसकी आने वाली नई किताब की मेनुस्क्रिप्ट लेकर सबसे पहले छापने के लिए. सावन एक युवा क्रिकेटर हैं जिसका सपना देश के लिए खेलना लेकिन इस सपने की शुरुआत के लिए उसे पहले मुंबई अंडर-22 की टीम में चयन होना पड़ेंगा.

                          पूरी फिल्म शोर शराबे से परे एक अलग दुनिया की तरफ ध्यान खींचती हैं, ऐसी दुनिया जहाँ कुछ लोग डर से जी रहे हैं, लेकिन वो ही डर ही एक दिन उन्हें नई सुकून भरी ज़िन्दगी शुरू करने का मौका देती हैं चाहे उसके लिए उन्हें भले ही किसी गलत रास्ते से गुजरना पड़े. अभय को लोकल गुंडे प्रोटेक्शन मनी के नाम परेशान करते हैं, वरना वे उसे जान से
मार देंगे. आखिरकर वो डर का हल डर का खात्मा करके करता हैं. फिल्म उन लोगो की ज़िन्दगी की भी कहानी हैं जो अपने सपनो को पूरा करने के सफ़र के पहले पड़ाव में ही इतने हताश हो जाते हैं की वो सपने पुरे करने के लिए पतली गली ढूंढने लगते हैं. सावन चयन शिविर में अपने खराब प्रदर्शन से इतना टूट जाता हैं की वो सेलेक्टर्स को 10 लाख रूपये रिश्वत देने के लिए बैंक लुटने का प्लान बनाता हैं जिसको अंजाम तिलक, रमेश और मंदूक देते हैं.
                         आखिर में बैंक लुटते वक़्त तिलक को गोली लग जाती हैं और उसे मरा समझ छोड़ रमेश व मंडूक पुलिस के डर से भाग जाते हैं. सावन को उसके 10 लाख रूपये भी मिल जाते हैं लेकिन सेलेक्टर्स की केबिन के बाहर बैठें उसे एहसास होता हैं की उसके सपने किसी की जान से बड़े नहीं हैं और वो फिर प्रैक्टिस सेशन में कड़ी मेहनत में जुट जाता हैं.
                           एक कहावत आपने सुनी होंगी कर भला तो हो भला, तिलक के साथ जो कुछ भी हुआ वो यही बयां करता हैं. उसने घायल लड़के की मदद की, बुक पर भी असली लेखक का नाम और फोटो छपवाया, वो अपना काम पूरी इमानदारी से करता था, तो बैंक में तिलक को होश आ जाता हैं और गणपति विसर्जन के लिए निकल रहे जुलुस के शोर शराबे में मग्न पुलिस, बैंक स्टाफ के पीछे से चुपचाप बैंक से बाहर निकल जाता हैं.   
                         यह फिल्म देखते वक़्त मुझे दो अलग-अलग सदी की बेहतरीन फिल्में ‘वास्तव’ और ‘कहानी’ की याद आ गयी. फिल्म में अभय और वास्तव के ‘रघु’ के किरदार भले ही भिन्न हो लेकिन उनके भीतर का डर एक जैसा ही था जिसने उन्हें क्रिमिनल बना दिया. ‘शोर इन दी सिटी’ महाराष्ट्र के गणेश-महोत्सव के दौरान की कहानी हैं, वहीँ ‘कहानी’ बंगाल के दुर्गा महोत्सव के इर्द-गिर्द घुमती हैं. फिल्म का स्क्रीनप्ले साल के बेहतरीन 10 फिल्मो के स्क्रीनप्ले में शुमार किया गया हैं. सभी ने बेहतरीन अभिनय किया हैं. राज-डी.के. के निर्देशन में पहली फिल्म थी जिसमे डर, सपने, बन्दुक, लालच, भ्रष्टाचार, ईमानदारी, शोर, भीड़ को एक पिटारे में कैद कर उन्हें खूबसूरत तरीके से दिखाया हैं.                        
                          फिल्म लालच बुरी बला पर भी व्यंग्य कसती हैं रमेश-मंडूक के लालच की वजह से तिलक की जान भी जा सकती हैं, लेकिन फिल्म में एक कमी जाहिर होती हैं की फिल्म के अंत में कहीं नही दिखाया जाता हैं की रमेश-मंडूक को पता चलता भी हैं या नहीं की तिलक जिन्दा हैं. सावन की कहानी भ्रष्टाचार की बुराई करने वालो पे एक तमाचा हैं क्यूंकि इसको बढ़ावा देने वाले भी तो हम खुद हैं हम बिना मेहनत के ही आगे बढ़ना चाहते हैं, सावन को अपने आप से ज्यादा सेलेक्टर्स पर भरोसा था तो उसने उनसे मिलकर डील कर दी.
                         सालो से हम यह सुनते आ रहे हैं की बड़े बिजनेसमैन, बॉलीवुड के निर्माताओं को अंडरवर्ल्ड के लोग परेशान करते हैं उनसे प्रोटेक्शन मनी मांगते हैं. यह फिल्म उस अंडरवर्ल्ड का छोटा सा उदाहरण पेश करती हैं जो अभय के साथ हुई घटना से जुड़ा हैं, लेकिन हर कोई तो गन नहीं उठा सकता ना.

                         हिंदुस्तानियों को थाली सिस्टम बेहद पसंद हैं कुछ ऐसी ही उम्मीद वो बॉलीवुड से भी करते हैं की एक ही फिल्म में उन्हें आइटम सोंग, रोमांस, लव, एक्शन, कॉमेडी सब परोसे जाए. इसलिए मुझे लगता हैं बॉलीवुड को अब थोडा बदलकर एक लॉन्ग स्टोरी पर फिल्म बनाने के बजाय दो तीन शोर्ट स्टोरीज को मिलकर एक अच्छी फिल्म बनानी चाहिए जिसे देखकर दर्शक एक कहानी/मुद्दे से हटकर एक ही फिल्म में अलग-अलग कहानियों/मुद्दों से रूबरू हो, तो बेशक थाली जरुर बिकेंगी. ‘शोर इन दी सिटी’ इसका अच्छा उदारहण है. इससे पहले यह पहल अनुराग बासु अपनी फिल्म ‘लाइफ इन मेट्रो’ में कर चुके हैं. सिनेमा के १०० वर्ष पुरे होने के उपलक्ष्य में अनुराग कश्यप, दिनकर बनर्जी, कारन जोहर, जोया खान ने अपनी-अपनी कहानियों को मिलकर चार कहानी कहती फिल्म ‘बॉम्बे टॉकीज’ भी बनायीं हैं. देखते हैं आगे कौन-कौन यह फ़ॉर्मूला आजमाता हैं.